गुरुवार, 11 जनवरी 2024

सेतगंगा के श्रीराम जानकी मंदिर में रावण का पहरा

 सेतगंगा के श्रीराम जानकी मंदिर में रावण का पहरा


छत्तीसगढ़ के नवगठित मुंगेली जिले की पश्चिमी सीमा पर टेसुवा नाला के तट पर स्थित सेतगंगा में एक अद्वितीय श्रीरामजानकी मंदिर है जिसकी तीन विशेषताएं हैं। पहला, यहां नर्मदा कुंड है। दूसरा, यहां के मंदिर की दीवारों में मिथुन मूर्तियां हैं और तीसरा, मंदिर के द्वार पर रावण की पद्मासन मुद्रा में मूर्ति है। इस नर्मदा कुंड को पंडरिया के जमींदार ने बनवाया था। इसे अमरकंटक के नर्मदा कुंड की तरह पवित्र और पुण्यदायी माना जाता है। खजुराहो के समान यहां के मंदिर की दीवारों में मिथुन मूर्तियां और गर्भगृह में श्रीराम लक्ष्मण और जानकी जी की मूर्तियां हैं। यहां अनेक देवताओं की मूर्तियां खम्भों में बनी हुई है। इसे देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि मानो यहां देवताओं की सभा लगी है और द्वार पर दशानन रावण पहरा दे रहे हैं। 

बिलासपुर जिला मुख्यालय से लगभग 80 कि.मी. की दूरी पर स्थित पंडरिया पहले एक जमींदारी थी। तब छत्तीसगढ़ की राजधानी रत्नपुर में थी और यहां कलचुरि हैहयवंशी राजाओं का शासन था। लेकिन पंडरिया उनके चौरासी या परगना में कभी नहीं रहा। छत्तीसगढ़ के गढ़ों में भी यह जमींदारी कभी नहीं थी। इस जमींदारी की स्वतंत्रता कलचुरि राजाओं के लिए एक समस्या बनी हुई थी। हैहयवंशियों की जमाबंदी पुस्तक से ज्ञात होता है कि पंडरिया जमींदारी का पुराना नाम ‘‘प्रतापगढ़‘‘ था। कप्तान ब्लंट (सन् 1795) लिखते हैं कि ‘‘प्रतापगढ़ के गोंड़ और रतनपुर के मराठों के बीच हमेशा लड़ाई हुआ करती थी। सन् 1818 में नागपुर के अप्पा साहब भाग निकले जिससे चारों ओर उपद्रव होने लगा। उस समय यहां के जमींदार के उपर उपद्रव कराने का आरोप लगाया गया था। यही कारण है कि जब करद राज्यों के हकों का बटवारा किया गया तब पंडरिया जमींदारी को रियासत न बनाकर जमींदारी ही रहने दिया गया।

पहले एक लोधी गढ़ा मंडला के राजा की आज्ञा से पंडरिया जमींदारी का उपभोग करता था। परन्तु सन् 1546 में उसने अपने राजा के विरूद्ध बगावत कर दी। उनकी इस बगावत को रामसिंह के पूर्वजों ने कुचल दिया। उनके इस पराक्रम और स्वामी भक्ति से प्रसन्न होकर उन्हें इस जमींदारी का जमींदार बना दिया। तब इस जमींदारी का नाम ‘‘मुकुतपुर प्रतापगढ़‘‘ था और इसका सदर मुकाम पहले ‘‘कामठी‘‘ में था जो आज पंडरिया के जंगलों के बीच एक गांव है। इस गांव में आज भी प्राचीन बस्ती के अवशेष दिखाई देते हैं। श्री श्यामसिंह इस जमींदारी का प्रतापी जमींदार हुआ। उनके प्रताप से ‘‘मुकुतपुर‘‘ का लोप हो गया और ‘‘प्रतापगढ़‘‘ नाम प्रचलित हो गया। बाद में इस वंश की सातवीं पीढ़ी के दलसाय ने जमींदारी का नाम प्रतापगढ़ से बदलकर ‘‘पंडरिया‘‘ रखा। सन् 1760 ईसवीं के आसपास उनके छोटे भाई महाबली को सैन्य सेवा के बदले गढ़ा मंडला के राजा ने कवर्धा का राजा बना दिया। पंडरिया जमींदारी के वर्तमान वंशज बताते हैं कि यह जमींदारी उनके कब्जे में 16 पीढ़ी से चली आ रही है। ये मकड़ाई नरेश से अपना रक्त का सम्बंध स्वीकार करते हैं। इनका वैवाहिक सम्बंध सारंगढ़, फुलझर और कंतेली के राजपरिवार में हुआ है। सन् 1732 ईसवीं में रतनपुर की गद्दी पर राजा तख्तसिंह के तृतीय पुत्र रघुनाथ सिंह को अपने अपने मंझले भाई सिदारसिंह की मृत्यु के पश्चात् यहां की गद्दी मिली, तब उनकी उम्र 60 वर्ष थी। वृद्धावस्था के कारण वे प्रशासन में अक्षम सिद्ध हुए। तब उनके अधिनस्थ गढ़ाधिपति और राजा अपने को स्वतंत्र राजा अथवा जमींदार घोषित कर शासन करने लगे। पंडरिया जमींदारी पहले से ही स्वतंत्र थी और रतनपुर के राजाओं के लिए सिरदर्द बनी हुई थी। सन् 1740 ईसवीं के अंतिम चरण में रतनपुर राज में भोंसलें मराठों का अधिपत्य हो गया।


पंडरिया के जमींदार बहुत दयालु और शांतिप्रिय थे। उनकी लोकप्रियता के कारण रतनपुर के राजा उनसे नाराज अवश्य थे लेकिन उनकी प्रजाप्रियता और अनुशासन से प्रजा बहुत खुश थी। वे नर्मदा मैया के अनन्य भक्त थे। पर्व आदि में वे हमेशा अमरकंटक जाकर नर्मदा कुंड में अवश्य स्नान-ध्यान किया करते थे। लेकिन वृद्धावस्था के कारण अमरकंटक जाने में वे असमर्थ हो गये। इससे उनका मन व्यथित हो गया। नर्मदा स्नान की उत्कट इच्छा ने उन्हें नर्मदा मैया के शरण में ले गया। वे खान पान छोड़कर नर्मदा मैया की स्तुति में नमिग्न कर दिया। रात्रि में उन्हें स्वप्नादेश हुआ-‘‘हे राजन् ! मैं तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न होकर तुम्हारे राज्य की सीमा के पूर्वी छोर पर उद्गमित हुई हंू। आप वहां स्नान कर अपनी इच्छा की पूर्ति कर सकते हैं।‘‘ प्रातः वे अपनी जमींदारी की पूर्वी सीमा में आकर नर्मदा उद्गम की खोज कराये। थोड़ी देर में उन्हें नर्मदा उद्गम का पता चल गया। गंगा समान पवित्र जल के बुलबुले के रूप में अवतरित हुई नर्मदा को एक कुंड में सुरक्षित कराकर उसकी पवित्रता को प्रचारित कराया। श्वेत गंगा के समान पवित्र जलधारा वहां पर जन जीवन को आकर्षित किया और वहां एक बस्ती बस गयी और उस बस्ती का नाम ‘‘सेतगंगा‘‘ रखा गया। सेतगंगा मुंगेली से 16 कि.मी. और पंडरिया से 18 कि.मी. दूर है। यहां आज भी नर्मदा कुंड है। टेसुवा नाला के तट पर बसे इस छोटे से नगर में जल का बहुत अच्छा स्रोत है जो नर्मदा उद्गम की पुष्टि करता है। इस कुंड के जल की महत्ता अमरकंटक के नर्मदा कुंड के जल के समान है।

 

सेतगंगा में पंडरिया के जमींदारों ने श्रीरामजानकी जी का एक भव्य मंदिर बनवाया। मंदिर सत्रहवीं शताब्दी का है। द्वार पर गरूण की हाथ जोड़े प्रतिमा है। मंदिर के ध्वस्त होने पुनर्निर्माण कराये जाने का पता चलता है। पुनर्निर्माण के समय बिखरी मूर्तियों को यथा स्थान जड़ दिया गया है। पश्चिमी द्वार पर पद्मासन में बैठे दसानन रावण की मूर्ति स्थित है जिसे बाद में जड़ दिया गया है। बहुत संभव है रावण का कोई मंदिर भी रहा हो ? क्योंकि रावण के बगल में एक शक्ति को प्रदर्शित करने वाला देवी की मूर्ति स्थित है। मंदिर के भीतर अन्यान्य देवताओं जैसे श्रीगणेश, ब्रह्मा, और श्रीराम आदि की मूर्तियां खंभों में बनी हैं। मंदिर की बाहरी दीवारों पर अनेक मिथुन मूर्तियां हैं। कुछ लोग इन्हें कामशास्त्र में बताये गये आसनों का मूर्त रूप मानते हैं, तो कुछ लोग तत्कालीन समाज की प्रवृत्ति के नमूने के रूप में देखते हैं। कुछ लोगों का यह भी मत है कि खजुराहो के समान यहां भी मिथुन मूर्तियां दृश्य सम्प्रदाय की मान्यताओं का प्रदर्शन है जो यह विश्वास दिलाता है कि योग और भोग दोनों से ही आध्यात्मिक लक्ष्य की प्राप्ति हो सकती है। भारतीय परंपरा में काम को भी प्रधानता प्राप्त है। इसके बाद मोक्ष की प्राप्ति होती है। यहां एक बात ध्यान देने योग्य है कि मिथुन मूर्तियों का निर्माण करना आगमों के अनुसार अमांगलिक नहीं बल्कि मांगलिक माना जाता है। और विश्वास किया जाता है कि इन मूर्तियों के कारण मंदिर को किसी की नजर नहीं लगती, न ही उसके उपर कोई प्राकृतिक विपदा ही आती है। भारतीय चिंतन में आत्मा और परमात्मा का मेल को ही मोक्ष माना गया है, जहां दो प्राणी भेद त्यागकर एक हो जाते हैं।

    दर्शनार्थी गण नर्मदा कुंड के जल का आचमन कर, भगवान श्रीरामजानकी का दर्शन-पूजन करके मन्नत मांगते हैं और पूरा होने पर पुनः दर्शन करने के लिए आने की बात करते लौट जाते हैं। अच्छा होता कि यहां के मंदिरों का उचित रख रखाव और प्रचार प्रसार होता तो निश्चित् रूप से यह पर्यटन नक्शे में आ जाता ? 




सोमवार, 27 नवंबर 2023

छत्तीसगढ़ में देवार गीत और लोक गाथाएं

 छत्तीसगढ़ में देवार गीत और लोक गाथाएं

देवार, छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण जनजाति है। ये एक घुमन्तू या ययावरी जाति के रूप में जाने जाते हैं। इनका जीवन अनिश्चितता व भटकने में व्यतीत होता है। भाषाविद डाॅ. विनयकुमार पाटक के अनुसार ‘देवार‘ शब्द ‘देव‘ और ‘आर‘ से समन्वित प्रतीत होता है जिसका अर्थ ‘‘देवोद्रेक की प्राप्ति‘‘ माना जा सकता है। नाच-गान से ये जहां अपना थकान मिटाते हैं, वहां भूख-प्यास को भी भूला बैठते हैं। इनके नाच-गान के साथ धार्मिक मान्यता भी संपृक्त है तदनुरूप ये देवताओं को प्रसन्न करने के लिये नृत्य करते हैं। नाच गान इनका विशिष्ट गुण है, सर्प पकड़ना और सुअर पालना इनका धर्म। यही सब ये अपने बच्चों को सहज रूप से देते आये हैं। शिक्षा से ये कोसों दूर हैं। 

देवार जनजाति का प्रमाणिक इतिहास नहीं मिलता लेकिन जनश्रुतियों के अनुसार ये जाति राज्याश्रय प्राप्त कलाकार के रूप में भाट या चारण का कार्य करती रही हैं। रियासतों की समाप्ति के बाद ये अपनी कला को इधर उधर विचरण कर प्रदर्शित करते हैं। अर्थात ये बहुत संतोषी जीव कहे जा सकते हैं। जो कुछ मिल गया खा लिए, फटा चिथड़ा मिल गया उसे पहन लिए और टेंटनुमा कपड़े का निवास बनाकर गोदरी बिछाकर सो जाते हैं। कुछ दिनों बाद ये अपना डेरा-डंडा उठाकर दूसरी जगह पैदल चले जाते हैं। बांसनुमा डंडे, टट्टे, कपड़ों की पोटली, मिट्टी व सिल्वर के बर्तन रखे सुअर और मूर्गियों को लिए चलते हैं। ठंड हो या बरसात या गर्मी सब ऋतु में ये अपना जीवन यापन इसी प्रकार करते हैं। देवार जाति के पुरूष लोकवाद्य ‘चिकारा‘ (सारंगी का लोकस्वरूप) और ढोलक बजाते हैं, स्त्रियां नाच गान करती हैं। इसे देवारीन नाच कहते हैं। कुछ देवार परिवार ‘डंगचघा‘ का प्रदर्शन कर मनोरंजन करते हैं और लोग मनोरंजन के बाद उन्हें पैसा देते हैं। कुछ परिवार बंदर नाच दिखाकर भी मनोरंजन कर पैसा प्राप्त करते हैं। इसके बावजूद ये सर्प पकड़ते और ओझा के रूप में झाड़फूंक भी करते हैं। आंचलिक कवि श्री मोहन डहरिया रायपुर ने देवार गीत में उनके बारे में गाया है:-

मोर गांव के भाठा मा

लगाइन देवार डेरा

लिपिन पोतिन ठोक ठाक के

बनाइन अपन डेरा

                जुगुर जागर दिखय संगी

                छै फुट के डेरा। मोर गांव ....

                गांव मा नवा पहुना देख के

                लइका सियान जुरियागे

                कुकुर बेंदरा धर के

                ठौका करिया देवार आगे

                हाथ जोड़के करिया करिस

                सबके राम राम

                चोंगी माखुर देके करिया

                शुरू करय अपन काम। मोर गांव ...

                टिमिक टिमिक दीया बरय

                भाठा के देवार डेरा मा

                संझा बाजय सारंगी खंजेरी

                अउ गावय देवार गीत

                बेंदरा घलो कूदत रहय

                सुनके करिया के गीत। मोर गांव ...

                तन मा जेकर आधा कपड़ा

                भुंइया जेकर बिछौना हे

                बघिया बेंदरा सांप कुकुर

                जेकर रोज खिलौना हे

                देवार दिखाय बेंदरा नाचा

                देवारिन गोदय गोदना

                पढ़ाई से इमन दूरिहा होगे

                इही समाज के वेदना। मोर गांव ...

सरगुजा में देवार लोग ओझा का कार्य करते हैं। ये तंत्र-मंत्र की सिद्धि कर जादू टोने, भूतप्रेत को भगाने का भी काम करते हैं। यहां ये एक बस्ती में स्थायी रूप से रहते हैं। सरगुजा में इन्हें बैगा के समानान्तर मान सम्मान दिया गया है और इन्हें देव जागृत करने वाले ‘‘मांत्रिक देवार‘‘ कहा जाता है।

डाॅ. पाठक के अनुसार देवार गोंड़ जनजाति से सम्बंधित माने जाते हैं। उनमें जातीय गौरव महत्वपूर्ण हैं। उनके अनुसार जैसे पक्षियों में पतरेंगवा, सर्प में मणिधारी और राजाओं में गोंड़ श्रेष्ठ हैं, वैसे ही जनजाति में देवार अग्रणी हैं:-

चिरई म सुंदर रे पतरेंगवा, सांप संुदर मनिहार।

राजा म सुंदर गोंड़े रे राजा, जात सुंदर रे देवार।।

नख-शिख निरूपण और अलंकर विभूषण देवार गीत एवं गाथाओं में दृष्टव्य है:-

पांव के अंगरी बिछिया बिराजे

मछरी छाप कलदार

छुनमुन पांव के पइरी बाजे

कनिहा हावै लचकदार

चूरी पहिरे बर जाय

ए सियारी दीनानाथ ....।

सोनहा सुर्रा काल म खिनवा

कान म बारी सोहाय

माथे म टिकली नाक के मुसकी

आंख म काजर लगाय

दसो अंगुरिया दस जोड़ी मुंदरी

भंवराही भंवराय

ए सियारी दीनानाथ ....।

मध्यप्रदेश अनुसचित जाति जनजाति विभाग की शोध पत्रिका के देवार अंक में प्रकाशित लेख के अनुसार, ‘‘मध्यप्रदेश के मंडला में भूमिया जाति के लोग ही ग्राम्य पुजारी होते हैं जिन्हें देवार कहा जाता है। यहां के देवार को धरती का मलिक भी कहा जाता है। इस प्रकार देवार कर्मगत विशेषण है जो जाति संज्ञा के रूप में स्थापित हो गया।‘‘ 

देवार लोग ग्राम्य पुजारी के साथ साथ गोंड़ जनजाति की परंपरागत लोक गाथाएं गाने में भी कुशल होते हैं। ये लोक गाथाओं की प्रस्तुति गांव गांव में भ्रमण करके करते हैं, बदले में अपने यजमानों से प्राप्त अन्न और पैसा लेकर घर वापस लौटते हैं। इसी प्रकार मंडला जिले में परधान एक दूसरी गोंड़ की उपजाति है। ये जाति भी देवारों की तरह गोंड़ मिथकों एवं गोंड़ इतिहास से सम्बंधित गाथाएं गांव गांव में भ्रमण करते गाते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि मंडला के कुछ देवार सपरिवार रतनपुर के हैहयवंशी राज्य में आकर गोंड़ मिथकों का एवं आख्यानों से सम्बंधित लोक गाथाओं का प्रस्तुतिकरण करने लगे। आगे चलकर रतनपुर का बलवान गोपालराय देवारों के ईष्ट हो गये। छत्तीसगढ़ के रायपुर, बिलासपुर, दुर्ग, रायगढ़, बस्तर और बस्तर जिलों में देवार जनजाति रहते हैं।

रतनपुर के गोपालराय बिंझिया से जुड़ी एक प्रबंध गीत जिसका संकलन श्री प्यारेलाल गुप्त ने 10 जून 1918 को किया था:-

अहो माय सरसती भवानी मोहिं चघगावौं गीत

अंठे गावौं कंठे जिभिया में गुरू गनेश

जोन जोन अच्छर गावौं सरसती जिभिया में बैठ कहि देय

देव बरोबर राजा रतनपुर के राज सिरी कलियानसाय

चार जुग के महाराज में छत्री जनमे गोपालराय

तिनके संग में गोपालराय के तैंतीस कोरी देवता प्रगट हैं।

कौन कौन देवता हवैं।

देवरचंडी देव प्रचंडी देव माता मावली

रईगढ़ के रंगेली अठारा सती, मुरगापाठ देवता, छुरिन के कोसगाई

तरैंगा के मावली घोराधार, समलाई संभलपुर के

सम्मुख देवता महामाई रतनपुर के काना भैरों, लखमी देवी, बुढ़ा महादेव

भेंडीमुड़ा में ठाकुर देवता, जिनके आगू मैं पराऊ बयगा

मातिन के मातिन देई, सुरगुजा के नथलदेई

सातगढ़ कंबराने में झगरखांड देउता

पेंडरा के भाटा में गुरभेली नगारा, मैना नांव के हथनिन रहिन

लल्लू बजैं चारजुग के नेगी बने रहिन तो प्रगना चलावै

कतेक राजा के परगना, सात राजा के संजारी,

सोरा राजा के बलौद, असी राजा के धमधा,

बावन के गढ़ा, बावन के मंडीला, बावन के बनराज

अठारह में रतनपुर, औ अठारह में रईपुर

सोरागढ़ में नागपुर, छप्पन कोट के जिमिंदार

छै गढ़ पाटरानी पटना, उतर बधेली

सोरा डंड के सुरगुजा, बाइस डंड के ओड़ियान

सात राजा के कोड़या, सात राजा के भखार, बिंद्राबन खोली ले,

छह कोरी माल लोहा बजवैया हथियार उठवैया

अंडा महुदा माल भागे दुबे सगरो बाम्हन के बेटवा अंय भागे दुबे

पीपरथाह का नवाय के बोकरा का पŸाी चराबैं

नौ मुंठा के साबर गठरी पारैं

भेज देय रतनपुर काखर अख्तियार चले गठरी छुटै

एक्के छोरै गोपालराय दुसर के लेखा बोझा हो जाय

उनके बल के थाह में दोनों झन मितानी बदे रहिन।

डाॅ. दयाशंकर शुक्ल के अनुसार देवार छत्तीसगढ़ की एक खानाबदोश जाति है। ये सुअर पालते हैं। ये गांवों में घूम घूमकर गोदना गोदते हैं। ये यदि भिक्षा न मांगें तो इन्हें जाति से बहिष्कृत कर दिया जाता है। नृत्य-गीत भी इनकी जीविका का साधन है। इसकी गीतों में सरसता होती है। व्यंग्य और हास्य का पुट इनके गीतों की विशंषता है। इनका जीवन कठोर और दरिद्रता से भरा होता है। इसके बावजूद ये अपनी गीतों में जीते हैं। देखिये एक गीत:-

झुमर जारे पंडकी झुमर जा रे

धमधा के राजा भाई तोर कइसन लागरे

लहर लोर लोर

तीतुर में झोर झोर

राय झुमझुम बांस पान

हंसा करेला पान-झुमर जारे-

धमधा के राजा भाई मोर ससुर लाग रे

लहर लोर लोर

तीतुर में झोर झोर

राय झुमझुम बांस पान

हंसा करेला पान

झुमर जा रे पंडकी झुमर जा रे।

ये गीत छत्तीसगढ़ में बहु प्रचलित है। संगीत और सरल भावनाओं का गीत में समन्वय देखने को मिलता है। पंडकी झुमर जा झुमर जा-धमधा के राजा से तुम्हारा कैसा नाता। धमधा के राजा मेरे ससुर लगते हैं। पंडकी झुमर जा झुमर जा। प्रमी प्रेमिका का वार्तालाप इस गीत में दृष्टव्य है। देखिये प्रेमी अपनी प्रेमिका से प्रणय निवेदन कर रहा है:-

प्रेमिका- कोन डोंगरी कोन झाड़ी कोन बन रे

भैया बोदरू के मोरे

कोन मेर टेंड़ा ला टेंड़त होबे रे

प्रेमी- इही डोंगरी, इही जंगल, इही झाड़ी वो बहिनी-

टूरी वो

इही मेर टेंड़ा ला टेंड़त हावंव वो।

प्रेमिका- कोन मेर बासी ला उतारंव रे भाई बोदरू मोर

प्रेमी- करसा के लउली अउ सात गांठ हरदी ल

लई लानबे वो बहिनी मोर

प्रेमिका- पर्रा बिजना, करसा के लउजी सात गांठ

हरदी ला का करबो रे भइया मोर

न तोरे संगनी न तोरे जंचनी रे भइया मोर

सात गांठ हरदी ला का करबे

प्रेमी- तोरे संग मंगनी, तोरे संग जंचनी

प्रेमिका- छाती तोर टूटय, आंखी तोर फूटय रे भाई रे मोरे

बहिनी बर नियत लगाये रे

प्रेमी- छाती मोर नई टूटय

आंखी मोर नई फूटय

तोरे संग भांवर परही वो।

इस गीत में स्त्री-पुरूष के पारस्परिक सम्बंधों पर प्रकाश पड़ता है। पुरूष का स्त्री के प्रति आकर्षण किसी ध्येय को लेकर ही होता है। उधर स्त्री-पुरूष के प्रस्ताव का विरोध करते हुए कहती है कि बहन से विवाह करने की नियत कैसे हो गई ! इस पर पुरूष ढीठ होकर कहता है कि मेरा कुछ नहीं बिगड़ेगा, तेरे साथ विवाह होकर रहेगा। देखिये एक देवार गीत जिसमें उड़ीसा के नारी का चित्रण किया गया है:-

ए सीयरी दिन नाथ

नवलख ओड़िया नवलख ओड़निन

डेरा परे सारी रात

ओड़निन टूरी ठमकत रेंगय

गिर गय पेट के भार

पांच मुड़ा के बेनी गंथा ले

खोंचे गोंदा के फूल

नवलख ओड़िया नवलख ओड़निन

कोड़य सगर के पार।

इस गीत का भाव है कि नौ लाख उड़िया पुरूष और नौ लाख स्त्रियों ने सारी रात पड़ाव डाला। उड़ीसा की लड़की ठमकत रेंग रही है और पेट के भार गिर गई। पांच फेरों वाली बेनी गांथे हुए हैं और जूड़े में गेंदा फूल लगाइ्र है। नौ लाख उड़िया पुरूष और नौ लाख उड़िया स्त्री सागर के पार को खोद रही है। देखिये एक अन्य गीत -

बघवा रेंगाले धीरे धीरे गा

डोंगरी के तीरे तीरे

बघवा रेंगाले धीरे धीरे

कोन नदी एले ठेले

कोन नदी में घूंचा पेले

कोन नदी में मारय झिंचकोरी

डोंगरी के तीर।

प्यारेलाल गुप्त के अनुसार छत्तीसगढ़ में देवार जाति के लोग काफी संख्या में मिलते हैं। इस जाति में मुक्तक और प्रबंध गीत प्रचलित होता है। देवार जाति के लोग नृत्य भी करते हैं और उसके साथ मुक्तक गीत गाये जाते हैं। इन गीतों में बिरम या विरह होता है। देखिये गीत की कुछ पंक्तियां:-

पांचों भाई के एके ठन बहिनी,

वो मोरों दाई मैं तो देवत हों धिया धकेल।

हई हुई रे मारे विरम, मैं तो देवत हों धिया धकेल।

दार्द ददा के इनदरी जरत है, भौजी के जियरा जुड़ाय।

हई हई रे मोर बिरम, भौजी के जियरा जुड़ाय।

एक ही बहिन के ब्याह हो जाने से पांचों भाइयों को उसका विरह दुखी करता है पर भौजाइयां खुश होती हैं। ‘‘सास ननंद मोरे जनम के बैरिन‘‘ लोकोक्ति पूरे देश में प्रसिद्ध है। देवार जाति में प्रबंध गीत भी प्रचलित है। इनमें छत्तीसगढ़ का इतिहास मुखरित होता है। अनेक गीत रतनपुर राजा और उसके सामंतों के कार्यो के वर्णन से भरे हुए हैं। पंडित लोचनप्रसाद पाण्डेय ने देवारों को छत्तीसगढ़ की चारण जाति माना है, जिसके अनुसार इस जाति के लोग अपने स्वामी की प्रशस्ति का गान करते हैं। इस दृष्टि से देखा जाये तो देवार इस प्रदेश के ऐतिहासिक महत्व को अपने गीतों में सुरक्षित, रखते चले आ रहे हैं। इन देवारों के प्रबंध गीतों में गोपाल राय का पंवारा, डेरहा दलपत का पंवारा, चन्दा गुवालिन का पंवारा आदि प्रसिद्ध है। गोपाल राय रतनपुर के राजा कल्याण साय, जो हैहयवंशी राजा था और जिसका उल्लेख जहांगीरनामा में मिलता है, का एक मल्ल था। एक समय राजा कल्याण साय ने दिल्ली जाने की इच्छा व्यक्त की और अपने मल्ल को बहुत धृष्ट होने के कारण नहीं ले जाने का निर्णय किया परन्तु गोपाल राय रानी भवानामती से आज्ञा लेकर उसके साथ चला गया। दिल्ली जाकर उसने बादशाह के हाथी को मार डाला और अनेक वीरता के करतब दिखाये। देखिये गीत:-

राजा बोले कल्याण साय भवानी माता,

तोर हुकुम ला पातेंव तो बाच्छाय के सेवा मां जातेंव।

बाच्छाय बइठे हवय जेकर बेटा शाह जहान,

बाच्छाय के बीरन बैठे, नेगी बहादुर खान।

बीरन बहादुर नेंगी के बेटा डब्बल खान,

बाच्छाय के गुरू जहां हे दलीला मलीला।

छै महिना के सेवा करय तो तखत ला करय सलाम।

बरिख दिन सेवा करय तो बाच्छाय ला करय सलाम।

बरस दिन मांदू पड़त बाच्छाय बहिराय।

हिन्दी के बाना ला वो डिल्ली मां बोरय गा।

गाय मांस खवावय कलमा पढ़वावय ज्वान।

कान चीर मुंदरी पहिरावयकर मुगलानी भेष।

प्रो अश्विनी केशरवानी 

"राघव " डागा कालोनी , बरपाली चौंक चाम्पा - ४९५६७१ 

जिला जांजगीर चाम्पा 


गुरुवार, 19 अक्तूबर 2023

संगीत और नृत्य का संगम प्रो. कल्याणदास महंत

 संदर्भ: रायगढ़ कत्थक घराना, 

संगीत और नृत्य का संगम प्रो. कल्याणदास  महंत

कत्थक के विशिष्ट घरानों में रायगढ़ घराने का महत्वपूर्ण स्थान है। इस घराने को जिन प्रतिभाओं ने उन्नत किया है उनमें कल्याणदास महंत का विशिष्ट स्थान है। आइए, संगीत और नृत्य से जुड़े और मध्यप्रदेश शासन द्वारा ‘शिखर सम्मान‘ से सम्मानित इस कलाकार के जीवन के पृष्ठों पर दृष्टिपात करें।

संगीत और नृत्य एक दूसरे से जुड़ी दो विधाएं, लेकिन एक दूसरे में काफी घुली मिली, फिर भी बहुत कम प्रतिभाएं ऐसी होती हैं जिनका इन दोनों विधाओं पर समान अधिकार होता है।कल्याणदास महंत उन्हीं बिरली प्रतिभाओं में से एक हैं। कहते हैं, प्रतिभा जन्मजात होती हैं लेकिन प्रतिभा को अगर माहौल भी अनुकूल मिल जाये तो प्रतिभा के उस अंकुर को एक लहलहाते पेड़ में परिवर्तित होते देर नहीं लगती। कल्याणदास महंत के साथ भी ऐसा ही हुआ। 

10 अक्टूबर 1921 को बिलासपुर जिले के मड़वा (नवापारा) ग्राम में कुशालदास महंत के घर द्वितीय पुत्ररत्न के रूप में कल्याणदास का जन्म हुआ। उनका बचपन पिता और बड़े भाई के संगीतमय माहौल में बीता, जिससे सात वर्ष की उम्र से ही संगीत (नृत्य और गायन) की ओर इनका झुकाव बढ़ता ही गया। बड़े भाई ‘इसराज‘ बजाते थे, जिससे आसपास के तबला और हारमोनियम वादक और गायक कलाकारों की बैठक इनके घर आये दिन हुआ करती थी। बालक कल्याण की रूचि इससे स्वाभाविक रूप से बढ़ती गयी।

क्ला चंद्रपुर से सारंगढ़ ले आयी

वे कहते हैं, ‘गांवों में गम्मत और नाचा हुआ करता था। मेरी रूचि देखकर लोग मुझे आमंत्रित करने लगे। उनका खुश होना मुझे उत्साहित करता था। आज जो सम्मान मुझे मिला है, यह उसी का प्रतिफल है। एक बार चंद्रपुर के जमींदार शशिभूषण सिंह का हमारे घर आगमन हुआ उस दिन संयोग से बोलवा उस्ताद और लल्लूलाल तबला और हारमोनियम पर संगत कर रहे थे। बड़े भाई इसराज बजा रहे थे। बस, मेरे नृत्य का सितारा चमक उठा। मुझे आज भी उस दिन गाये गीत के बोल याद हैं। चंद्रपुर के जमींदार उसी से आकर्षित होकर मुझे चंद्रपुर ले आये ... ‘यमुना तट में राम, खेलत होरी यमुना तट में।‘ नृत्य विधा में मेरी कीर्ति चारों ओर फैलने लगी और एक दिन गांव में सनसनी फैल गयी जब सारंगढ़ रियासत के सिपाही परवाना लेकर हमारे घर आये। पहले तो सिपाही को देखकर हम लोग डरे, बाद में जब उन्होंने परवाना पढ़कर सुनाया और मुझे राजदरबार में ससम्मान ले जाने की अपनी मंशा जाहिर की तो खुशी से मैं उनके साथ हो लिया। इस प्रकार मैं चंद्रपुर से सारंगढ़ आ गया। यहां राजदरबार में मेरा नृत्य-गायन हुआ-

बहियां रे, घर जाने को छोड़ मोरी,

राह-बाट मोरी रोकत-टोकत है...।

मेरा बाल नृत्य देखकर राजा बहादुर बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने दीवान की सलाह मानकर मुझे दरबार में रहने की अनुमति दे दी। सारंगढ़ रियासत मेंमेरी उपस्थिति से सबसे ज्यादा खुशी राजकुमारी वासंती देवी को हुई। उनका संगीत के प्रति झुकाव था। मेरे नृत्य-गायन से प्रसन्न होकर वे हारमोनियम पर संगत करतीं और गीत गाती थीं-‘दिया बिना सूनी रे, हवेली कौनो काम की...।‘

बाद में उनकी शादी रायगढ़ के राजा चक्रधरसिंह से हुई। विवाहोपरांत वे रायगढ़ आ गयीं। मेरा नृत्य-गायन जैसे निर्जीव हो गया। लेकिन किस्मत को यह मंजूर नहीं था और एक दिन राजा चक्रधरसिंह के आगमन से ही मेरा सितारा पुनः समक उठा। मेरा नृत्य देखकर वे अति प्रसन्न हुए। संगीत के पारखी तो वे थे ही, मेरा बाल नृत्य उन्हें मोहित कर गया और वे मुझे रायगढ़ ले आये। यहां मेरे जैसे और भी कलाकार थे। मुझे कार्तिकराम, फिरतूदास और बर्मनलाल का साथ मिला। हमउम्र साथ से हमारा उत्साह दोगुना होता, प्रतिस्पर्धा की होड़ से हमारी कला में निखार आता गया।

संगीतमय रियासत

रायगढ़ रियासत शुरू से ही संगीतमय रही है। आजादी और सत्ता हस्तांतरण के बाद सदियों से चले आ रहे भारतीय राज्यों तथा रियासतों के सभी विशेषाधिकार समाप्त कर भारतीय संघ में इनका विलय कर दिया गया। जिसके बाद यह रियासत इतिहास के पन्नों में कैद होकर, गुमनामी के अंधेरे में धीरे धीरे अपना अस्तित्व खोने लगी। लेकिन कुछ रियासतें ऐसी भी थीं, जिन्हें साहित्य, संगीत और कला के क्षेत्र में विशिष्ट योगदान के लिए आज भी याद किया जाता है। छत्तीसगढ़ के उत्तर-पूर्वी भाग में रायगढ़ रियासत और और राजा चक्रधरसिंह का नाम भारतीय संगीत और कत्थक नृत्य के क्षेत्र में विशिष्ट स्थान रखता है। राजसी ऐश्वर्य, भोग-विलास और झूठी प्रतिष्ठा की लालसा से दूर उन्होंने अपना जीवन संगीत, कला और साहित्य को समर्पित कर दिया। फलस्वरूप 20वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में रायगढ़ दरबार की ख्याति कत्थक नृत्य के क्षेत्र में समूचे भारत में सिर चढ़कर बोलने लगी थी। राजा चक्रधरसिंह के योगदान के कारण ही लखनऊ, जयपुर और बनारस जैसे कत्थक के विशिष्ट घरानों के साथ रायगढ़ घराने का भी नाम जुड़ गया। सन् 1924 में उनके बढ़े भाई राजा नटवरसिंह की आकस्मि मृत्यु के उपरांत, राजगद्दी सम्हालने के बाद उनका ज्यादा समय साहित्य, संगीत और कला में ही व्यतीत होने लगा। वे छत्तीसगढ़ के प्रतिभावान कालाकारों को खोजकर उनकी शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था कर, उनकी प्रतिभा को उभारने लगे।

इन्हीं प्रतिभाओं में कातिकराम, कल्याणदास, फिरतूदास और बर्मनलाल प्रमुख हैं। देश के चोटी के कलाकारों को अपने दरबार में आमंत्रित कर उन्हें कत्थक, गायन और तबला वादन की शिक्षा देने का प्रबंध किया गया तथा स्वयं राजा चक्रधरसिंह ने भी इन गुरूओं से संगीत के शास्त्रीय पक्ष तथा तबला वादन की शिक्षा ग्रहण की। इनके अथक प्रयास और लगन से, कत्थक के विद्वान गुरूओं के सानिघ्य और दीक्षा से चारों कलाकार देश-विदेश में ख्याति अर्जित करने लगे। कार्तिक-कल्याण की जोड़ी तो बहुत मशहूर हुई। 1935 में कलकत्ता में आयोजित आल इंडिया बंगाल म्यूजिक कान्फ्रेंस में इन्हें स्वर्ण और रजत पदक मिला। 1937 में इन्होंने इलाहाबाद संगीत सम्मेलन में स्वर्ण और रजत पदक प्राप्त किया। 1936 में दिलली आल इंडिया म्यूजिक कान्फ्रेंस में कल्याणदास को विशेष सम्मान एवं नृत्य प्रोफेसर की उपाधि प्रदान की गयी।

कार्तिक-कल्याण मेरी आंखें हैं -

एक वाकिए का जिक्र करते हुए कल्याणदास जी ने बताया कि 1937 में इलाहाबाद में आयोजित आॅल इंडिया म्यूजिक कान्फ्रेंस में हमारे प्रदर्शन से प्रभावित होकर दतिया और नेपाल के महाराजा ने कार्तिक-कल्याण और फिरतूदास को कुछ समय के लिए अपने राज्य में ले जाने की अनुमति देने का जब अनुरोध किया, तब राजा चक्रधरसिंह ने जवाब दिया था- ‘कार्तिक-कल्याण मेरी आंखें हैं और फिरतू-बर्मन मेरी भुजा, जिन्हें मैं किसी भी कीमत पर एक क्षण के लिए भी अपने से अलग नहीं कर सकता।‘

    रायगढ़ दरबार में आमंत्रित संगीतज्ञों में जयपुर घराने के पंडित जगन्नाथ प्रसाद पहले गुरू थे। उन्होंने तीन वर्ष तक यहां कत्थक की शिक्षा दी। इसके प्श्चात 1930 में पं. जयलाल यहां आये और राजा चक्रधरसिंह के अंतिम समय तक रहे। कत्थक के प्रख्यात गुरू और लखनऊ घराने से सम्बद्ध पं. कालिकाप्रसाद के तीनों पुत्र अच्छन महाराज, लच्छू महाराज और शंभू महाराज जैसे चोटी के कलाकारों ने भी समय समय पर रायगढ़ दरबार को सुशोभित किया। बिंदादीन महाराज के शिष्य सीताराम महाराज भी यहां रहे। उस्ताद कादर बख्श, अहमद जान थिरकवा जैसे प्रसिद्ध तबला वादक यहां बरसों रहे। इनके अतिरिक्त मुनीर खां, जमान खां, कामत खां, सादिक हुसैन आदि ने भी तबले की शिक्षा दी। कत्थक में गायन के लिए हाजी मोहम्मद, अनाथ बोस, नन्हें बाबू, धन्नू मिश्रा और नासिर खां भी रायगढ़ दरबार में रहे।

    दरअसल रायगढ़ दरबार को संगीत एवं नृत्य के क्षेत्र में इतनी ख्याति इसलिए मिली, क्योंकि यहां प्रतिवर्ष गणंश मेला उत्सव मनाया जाता था जिसमें चोटी के कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन करते थे। प्रसिद्ध फिल्म अभिनेत्री सुलक्षणा पंडित का बचपन भी रायगढ़ में ही बीता है।

मध्यप्रदेश शिखर सम्मान

सन! 1985 में मध्यप्रदेश शासन द्वारा प्रो. कल्याणदास महंत को ‘‘शिखर सम्मान‘‘ प्रदान किया गया। कला, संगीत और साहित्य की त्रिवेणी से सींचे कलाकारों में से कल्याणदास को सम्मान प्राप्त हुआ। आगे चलकर श्री कार्तिकराम और श्री बर्मनलाल को भी मध्यप्रदेश शासन द्वारा शिखर सम्मान प्रदान किया गया। सम्मान मिलने के बाद सर्वप्रथम किरोड़ीमल शासकीय कला एवं विज्ञान महाविद्यालय रायगढ़ के वार्षिक स्नेह सम्मेलन में बतौर मुख्य अतिथि आमंत्रित कर सम्मानित किया गया। उनके शिष्य देश-विदेश में उसकी परंपरा को प्रचारित कर रहे हैं। लेकिन वे अपनी अंतिम सांस तक संगीत को समर्पित रहकर इंदिरा कला एवं संगीत विश्व विद्यालय खैरागढ़ में प्राध्यापक रहे। उन्होंने 19 अक्टूबर 1991 को अंतिम सांस लेकर संगीत परंपरा को अलविदा कहकर स्वर्गारोहण किया।


रविवार, 10 सितंबर 2023

काव्योपाध्याय हीरालाल

काव्योपाध्याय हीरालाल

  हमारा देश जब अंग्रेजों की गुलामी  में जकड़ा हुआ था और चारों ओर त्राहि त्राहि मची हुई थी तब छत्तीसगढ़ भी इससे अछूता नहीं था। यहां भी गांधी, नेहरू और सुभाषचंद्र जैसे सपूत हुए जिन्होंने यहां जन जागृति फैलायी। इनमें स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और साहित्यकार थे जिन्होंने अपनी काव्यधारा प्रवाहित करके लोगों में आजादी के प्रति जन चेतना पैदा की और लोग स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े। उनकी साहित्य साधना तो एक बहाना था। वे इसी बहाने इस महासमर में सभी को साथ लेकर कार्य करने में महती भूमिका निभाते थे। छत्तीसगढ़ में राजनीतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक चेतना जगाने वाले अनेक महापुरूष हुए किंतु छत्तीसगढ़ी बोली को भाषा और साहित्य में स्थान दिलाने का महत्वपूर्ण कार्य काव्योपाध्याय हीरालाल एक मात्र थे जिन्होंने छत्तीसगढ़ी व्याकरण लिखा। कदाचित् इयीकारण उनकी गिनती छत्तीसगढ़ के सप्त ऋषियों में होती है। ऐसे महापुरूष का जन्म सन 1856 में राखी (भाठागांव) तहसील कुरूद और जिला धमतरी में एक सम्पन्न कुर्मी परिवार में हुआ। उनके पिता का नाम बालाराम और माता का नाम राधा बाई था।

हीरालाल जी की प्राथमिक शिक्षा रायपुर में हुई। मेट्रिक प्रधाना की परीक्षा उन्होंने 1874 में जबलपुर से पास की। वे बचपन से ही मेघावी और प्रतिभाशाली थे। उन्होंने अपने छात्र जीवन में अनेक पुरस्कार प्राप्त किया। मेट्रिक की परीक्षा पास करके मात्र 19 वर्ष की उम्र में सन 1875 में जिला स्कूल में सहायक शिक्षक नियुक्त हो गये। उस समय शिक्षकीय कार्य को बड़ा पुण्य का कार्य माना जाता था। शीघ्र ही अपनी प्रतिभा सम्पन्नता के कारण वे पदोन्नत होकर वे प्रधानाध्यापक होकर धमतरी के एंग्लो वर्नाकुलत टाउन स्कूल में पदस्थ हो गये। कालांतर में धमतरी ही उनकी कार्य स्थली भी बनी। उन्हें उर्दू, उड़िया, बंगला, मराठी और गुजराती भाषा का अच्छा ज्ञान था। सन् 1881 में उन्होंने ‘‘शाला गीत चंद्रिका‘‘ लिखा जिसे लखनऊ के नवल किशोर प्रेस ने प्रकाशित किया। इस रचना के लिए बंगाल के राजा सोरेन्द्र मोहन टैगोर ने उन्हें सम्मानित किया था। हीरालाल जी ने ‘‘दुर्गायन‘‘ लिखा जिसमें दुर्गा काली की स्तुति है। उनकी इस रचना के लिए उन्हें बंगाल राजा ने स्वर्ण पदक देकर सम्मानित किया और बंगाल संगीत अकादमी ने उनकी इस रचना के लिए उन्हें 11 सितंबर 1884 को ‘‘काव्योपाध्याय‘‘ की उपाधी प्रदान किया। तब से वे काव्योपाध्याय हीरालाल के नाम से प्रख्यात् हुए। 1885 में उन्होंने ‘‘छत्तीसगढ़ी व्याकरण‘‘ लिखा। उस मसय यहां खड़ी बोली का प्रचलन था और उसका भी कोई प्रमाणिक व्याकरण्र नहीं लिखा गया था। छत्तीसगढ़ी व्याकरण की चारों ओर व्यापक चर्चा हुई। सुप्रसिद्ध साहित्यकार पंडित लोचनप्रसाद पांडेय ने उसमें आवश्यक संशोधन किया और अंग्रेजी भाषाविद् जार्ज ग्रियर्सन से छत्तीसगढ़ी व्याकरण का अंग्रेजी अनुवाद करके जर्नल ऑफ एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल में इसे प्रकाशित कराया। उन्होंने इसकी प्रशंसा करते हुए लिखा कि ‘‘यह ग्रन्थ  भारतीय भाषाओं पर प्रकाश डालने का प्रयास करने वालों के लिए प्रेरणास्प्रद है।‘‘

यह ग्रंथ केवल छत्तीसगढ़ी व्याकरण ही नहीं है अपितु इस ग्रंथ में छत्तीसगढ़ी मुहावरें, कहावतें, लोक कथाएं और लोकगीत भी सम्मिलित हैं। इसमें छत्तीसगढ़ी बोली के स्वरूप को स्पष्ट करने में मदद मिलती है। सुप्रसिद्ध साहित्यकार पंडित लोचनप्रसाद पांडेय ने इस ग्रंथ में संशोधन करते हुए लिखा कि ‘‘छत्तीसगढ़ी व्याकरण ने हीरालाल जी को अमर कर दियाा।‘‘

काव्योपाध्याय हीरालाल जी ने ‘‘शालापयोगी गीत चंद्रिका‘‘ लिखा जो बच्चों के लिए भारतीय शास्त्रीय संगीत पर आधारित था। इस पुस्तक पर बंगाल संगीत अकादमी ने रजत पदक और अभिनंदन पत्र प्रदान कर उन्हें सम्मानित किया था। उनकी कुछ रचनाओं को इटली के सिग्नोर कैनिनी द्वारा संकलित काव्य ग्रंथ में प्रकाशित किया गया था। उल्लेखनीय है कि इस ग्रंथ में विश्व के अनेक भाषाओं की कविताओं का इटेलियन भाषा में अनुवाद प्रकाशित किया गया था। उनकी अन्य रचना में रायल रीडर भाग एक और दो (अंग्रेजीमें) और गीत रसिक प्रकाशित है।

काव्योपाध्याय हीरालाल स्वतंत्रता संग्राम के सिपाही, छत्तीसगढ़ी व्याकरणाचार्य ही नहीं थे बल्कि एक समाज सेवी भी थें। आगे चलकर वे धमतरी के नगरपालिका के अध्यक्ष चुने गये और लोगों की सेवाएं की। अक्टूबर 1890 में मात्र 34 वर्ष की आयु में उनका देहावसान हो गया। उन्होंने अपनी इस छोटी सी उम्र में  हिन्दी और छत्तीसगढ़ी भाषा के लिए उल्लेखनीय कार्य कर अमर हो गए। डाॅ. पी. एल. मिश्रा और डाॅ. रमन्द्र मिश्रा ने उनकी छत्तीसगढ़ी व्याकरण को परिमार्जित किया जिसे छत्तीसगढ़ राज्य हिन्दी ग्रंथ अकादमी रायपुर ने प्रकाशित किया है। काव्योपाध्याय हीरालाल के नाम पर रायपुर और अभनपुर के शासकीय महाविद्यालय का नामकरण किया गया है। ऐसे प्रभति साहित्यकार को मेरा शत शत नमन।


बुधवार, 30 अगस्त 2023

छत्तीसगढ़ का लोकपर्व भोजली

 

छत्तीसगढ़ का लोकपर्व भोजली

श्रावण मास में जब प्रकृति अपने हरे परिधान में चारों ओर हरियाली बिखेरने लगती है तब कृषक अपने खेतों में बीज बोने के पश्चात् गांव के चैपाल में आल्हा के गीत गाने में मग्न हो जाते हैं। इस समय अनेक लोकपर्वो का आगमन होता है और लोग उसे खुशी खुशी मनाने में व्यस्त हो जाते हैं। इन्हीं त्योहारों में  भोजली भी एक है। कृषक बालाएं प्रकृति देवी की आराधना करते हुए भोजली त्योहार मनाती हैं। जिस प्रकार भोजली एक सप्ताह के भीतर खूब बढ़ जाती है, उसी प्रकार हमारे खेतों में फसल दिन दूनी रात चैगुनी हो जाये... और वे सुरीले स्वर में गा उठती हैं:-

अहो देवी गंगा !

देवी गंगा, देवी गंगा, लहर तुरंगा,

हमर भोजली दाई के भीजे आठों अंगा।

अर्थात् हमारे प्रदेश में कभी सूखा न पड़े। वे आगे कहती हैं:-

आई गईस पूरा, 

                बोहाइ गइस कचरा।

हमरो भोजली दाई के,

                सोन सोन के अचरा।।

गंगा माई के आगमन से उनकी भोजली देवी का आंचल स्वर्ण रूपी हो गया। अर्थात् खेत में फसल तैयार हो रही है और धान के खेतों में लहलहाते हुए पीले पीले बाली आंखों के सामने नाचने लगती है। कृषक बालाएं कल्पना करने लगती हैं:- 

                आई गईस पूरा, बोहाइ गइस मलगी।

हमरो भोजली दाई के सोन के कलगी।।

लिपी पोती डारेन, छोड़ डारेन कोनहा,

सबो लाली चुनरी, भोजली पहिरै सोनहा।

आई गिस पमरा बोहाई गिस डिटका,

हमरो भोजली दाई ला चंदन के छिटका।।

यहां पर धान के पके हुए गुच्छों से युक्त फसल की तुलना स्वर्ण की कलगी से की गई है। उनकी कल्पना सौष्ठव की पराकाष्ठा पर पहुंच जाती है। फसल पकने के बाद क्या होता है देखिये उसकी एक बानगी:-

कुटी डारेन धाने, छरी डारेन भूसा।

लइके लइके हवन भोजली झनि होहा गुस्सा।।

अर्थात् खेत से धान लाकर कूट डालें इससे ठरहर चांवल और भूसा अलग अलग कर डालें।  चूँकि यह नन्ही नन्ही आलिकाओं के द्वारा किया गया है, अतः संभव है कुछ भूल हो गयी हो ? इसलिए नम्रता पूर्वक वे क्षमा मांग रही हैं। ‘‘झनि होहा गुस्सा‘‘ और उस बांस के कोठे में रखा हुआ अनाज कैसा है इसके बारे में वे कहती हैं:-

बांसे के टोढ़ी मा धरि पारेन चांउर,

महर महर करे भोजली के राउर।।

देवी को समीप्य जन्य घनिष्ठता के कारण कुदुरमाल मेला चलने और श्रद्धा भक्ति की औपचारिका से आगे बढ़कर संगीनी की तरह पान का बीड़ा खिलाने की बात कही जाती है। देखिए एक बानगी -

कनिहा म कमरपट्टा, हाथ उरमाले,

जोड़ा नरियर धर के भोजली दाई जाबो कुदुरमाले।

नानमुन टेपरी म बोयेन जीरा धाने,

खड़े रहा भोजली दाई खवाबो बीरा पाने।।

सवन महिना के कृष्ण पक्ष अष्टमी नवमीं को भोजली बोई जाती है और रक्षाबंधन के दूसरे दिन उसका विसर्जन किया जाता है । उसकी सेवा गीत गायी जाती है -

आठे के चाउर, नवमीं बोवाइन

दसमी के भोजली, जराइ कस होइन।

एकादशी के भोजली, दूदी पान होइन।

दुआस के भोजली मोती पानी चढ़िन।

तेरस के भोजली, लसि बिहंस जाइन।

चोदस के भोजली पूजा पाहुर पाइन।

पुन्नी के भोजली ठंडा होये जाइन।।

समस्त फसलों के राजा धान को बालिका ने बांस के कोठे में रख दिया है जिसके कारण उनकी सुंदर महक चारों ओर फैल रही है। कृषकों का जीवन धान की खेती पर ही अवलंबित होता है अतः यदि फसल अच्छी हो जाये तो वर्ष भर आनेद ही आनेद होगा अन्यथा दुख के सिवाय उनको कुछ नहीं मिलेगा। फिर धान केवल वस्ततु मात्र तो नहीं है, वह तो उनके जीवन में देवी के रूप में भी है। इसीलिए तो भोजली देवी के रूप में उसका स्वागत हो रहा है:-

सोने के कलसा, गंगा जल पानी,

हमरों भोजली दाई के पैया पखारी।

सोने के दिया कपूर के बाते,

हमरो भोजली दाई के उतारी आरती।।

सोने के कलश और गंगा के जल से ही कृषक बाला उनकी पांव पखारेंगी। जब जल कलश सोने का है तो आरती उतारने का दीपक भी सोने का होंना चाहिए। कल्पना और भाव की उत्कृष्टता पग पग पर छलछला रही है... देखिये उनका भाव:-

जल बिन मछरी, पवन बिन धान,

सेवा बिन भोजली के तरथते प्रान।

जब भोजली देवी की सेवा-अर्चना की है तो वरदान भी चाहिये लेकिन अपने लिए नहीं बल्कि अपने भाई और भतीजों के लिए, देखिये एक बानगी:-

गंगा गोसाई गजब झनि करिहा,

भइया अऊ भतीजा ला अमर देके जइहा।

भारतीय संस्कृति का निचोड़ मानों यह कृषक बाला है, भाई के प्रति सहज, स्वाभाविक, त्यागमय अनुराग की प्रत्यक्ष मूर्ति ! ‘‘देवी गंगा देवी गंगा‘‘ की टेक मानों वह कल्याणमयी पुकार हो जो जन-जन, ग्राम ग्राम को नित ‘‘लहर तुरंगा‘‘ से ओतप्रोत कर दे। सब ओर अच्छी वर्षा हो, फसल अच्छी हो और चारों ओर खुशहाली ही खुशहायी हो...!

भोजली का पर्व रक्षा बंधन के दूसरे दिन मनाया जाता है। इस दिन संध्या 4 बजे भोजली लिए बालिकाएं घरों से निकलकर गांव के चैपाल में अथवा राजा, जमीदार या गौंटिया के घर में इकट्ठा होती हैं। वहां उसकी पूजा अर्चना के बाद बाजे गाजे के साथ उनका जुलूस निकलता है। गांव का भ्रमण करते हुए  भोजलियों का जुलूस नदी अथवा तालाब में विसर्जन के लिए ले जाया जाता है। इस अवसर पर ग्रामीण बालाएं नये नये परिधान धारण कर अपने भोजली को हाथ में अथवा सिर में लिए आती हैं। वे सभी मधुर कंठ से भोजली गीत गाते हुए आगे बढ़ती हैं। नदी अथवा तालाब के घाट को पानी से भिगोकर घोया जाता है फिर भोजली के वहां पर रखकर उनकी पूजा-अर्चना की जाती है फिर उसका जल में विसर्जन  किया जाता है। बालाएं भोजली की बाली को लिए मंदिरों में चढ़ाती हैं। इस दिन अपने समवयस्क बालाओं के कान में भोजली की बाली लगाकर ‘‘भोजली‘‘ अथवा ‘‘गींया‘‘ बदने की प्राचीन परंपरा है। जिनसे भोजली अथवा गींया बदा जाता है उसका नाम जीवन भर नहीं लिया जाता और भोजली अथवा गींया संबोधित किया जाता है। माता-पिता भी उन्हें अपने बच्चों से बढ़कर मानते हैं। उन्हें हर पर्व और त्योहार में आमंत्रित कर सम्मान देते हैं। इसके अलावा घर और गांव में अपने से बड़ों को भोजली की बाली को देकर आशीर्वाद लिया जाता है और छोटों को देकर अपना स्नेह प्रकट करती हैं। भोजली, छत्तीसगढ़ में मैत्री का बहुत ही सुन्दर और पारंपरिक त्योहार है। इसकी तुलना आज के फ्रेंड्स डे से की जा सकती है।

भोजली गीत को बाबु प्यारेलाल गुप्त चार भागों में वर्गीकृत करते हैं:-

1. भोजली के जन्म और जल में विसर्जिक करने का वर्णन।

2. गंगा देवी से भोजली के अंगों को भिगा देनी की प्रार्थना।

3. भोजली की सेवा, प्रशंसा और वरदान के गीत।

4. प्रबंध कथात्मक गीत।

उनके कथनानुसार भोजली बोते समय गीतों को प्रश्नोत्तर शैली में गाया जाता है। जैसे किसके घर

की टोकरी, किसके घर की मिट्टी और किसके घर की जवा भोजली है।

कुम्हार घर के खातू माटी, तुनिया घर के टुकनी।

बइगा घर के जवा भोजली, चढ़य मोतिम पानी।। अहो देवी गंगा

एक अन्य भोजली गीत:-

कंडरा घर के चुरकी, कुम्हार घर के खातू।

राजा घर के जवा भोजली लिहय अवतारे।। अहो देवी गंगा

डाॅ. पीसीलाल यादव के अनुसार प्रत्येक जाति की बालाएं भोजली उगाती हैं। किंतु लोधी जाति में इस पर्व को विशेष रूप से मनाया जाता है। लोधी बहुल गांव में भोजली का विशंष आकर्षण होता है। इस जाति में इसी अलग मान्यता और विधान है। एक संस्कार के रूप में इसका निर्वहन किया जाता है। भले ही आज इसका चलन कम होते जा रहा है, लेकिन भोजली के प्रति इसका आकर्षण बरकरार है। इस जाति में सावन महिने में जिस लड़की का भोजली उगोना होता है, यानी आने वाले महिने में उसका गवना होने वाला रहता है वह सात दिनों तक मिट्अी कू ‘‘बांटी भवरें‘‘ बनाती है। सातवें दिन उसे कुआ बावली में ठंडा किया जाता है। इसी प्रकार भोजली उगाकर, उसकी सेवाकर रक्षासूत्र और प्रसाद चढ़ाकर विसर्जित किया जाता है। भोजली के विसर्जन के लिए उगोना वाली लड़की श्रृंगार कर भोजली की टोकरी सिर में और दाहिने हाथ में पर्री रखकर सबसे आगे चलती है और पीछे पीछे अन्य बालाएं भोजली गीत गाते चलती हैं। इस दृश्य को देखकर लोग सहज अनुमान लगा लेते हैं कि किस लड़की का गवना होने वाला है। यह अनोखी परंपरा प्रकृति और लोक जीवन से जुड़ी हुई है।


 


मंगलवार, 15 अगस्त 2023

स्वाधीनता आंदोलन के अमर सिपाही

 स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर

स्वाधीनता आंदोलन के अमर सिपाही

स्वतंत्रता आंदोलन में छत्तीसगढ़ भी कभी पीछे नहीं रहा है। छत्तीसगढ़ के साथ ही पूरे देश के आंदोलन में इस भूमि के सिपाही सपूत सक्रिय रूप से भाग लेते रहे लेकिन उनका समुचित मूल्यांकन आज तक नहीं हो सका है। 1856-57 में सोनाखान के वीर सपूत नारायण सिंह ने अंग्रेज सरकार के विरूद्ध आंदोलन किया था और आगे भी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में छत्तीसगढ़ के अन्यान्य लोगों ने अपना अमूल्य योगदान दिया है जिसका उचित मूल्यांकन नहीं हो सका है।

वीरनारायणसिंह :- 

    


1857 में अंग्रेजी हुकूमत के विरूद्ध पूरे देश में आजादी के लिए सशस्त्र क्रांति हुई थी लेकिन आपसी तालमेल और कुछ राजा महाराजाओं के असहयोग के कारण वह असफल हो गया और ब्रिटिश अधिकारी और पाश्चात्य इतिहासकारों ने इसे एक सामान्य सैनिक विद्रोह माना था। उस काल में छत्तीसगढ़ में भी सैन्य क्रांति की शुरूवात हुई थी जिसका नेतृत्व ब्रिटिश कालीन बिलासपुर (वर्तमान बलौदाबाजार) जिलान्तर्गत सोनाखान के जमींदार नारायणसिंह ने किया था। जनमानस ने नारायणसिंह की निर्भिकता और क्षेत्र में उत्पात मचा रहे खंखार शेर का शिकार करके मुक्ति दिलाने के कारण उन्हें ‘‘वीर‘‘ नायक मानने लगा। तब से उन्हें वीर नारायणसिंह कहा जाने लगा।

इतिहास के पन्नों में सन् 1856-57 के आकाल को ‘भुइयां अकाल‘ कहा जाता है। चारों ओर त्राहि त्राहि हो रही थी। अनेक लोग राहत कार्य के रूप में तालाब खुदवाने लगे थे और मजदूरी के रूप में अनाज देते थे ताकि परिवार भूखा  न रहे। हमारे घर में मुझे डिप्टी कमिश्नर के द्वारा खेदूराम साव के नाम अपने मालगुजारी गांव हसुवा, टाटा और लखुर्री में तालाब खुदवाकर लोगों को भूखों मरने से बचाने के लिए प्रशस्ति पत्र दिया गया था। संभव है छत्तीसगढ़ के गांवा में तालाब खुदवाकर लोगों को राहत पहुंचाया गया होगा। बहरहाल, ऐसे समय में अंग्रेजों के दमनात्मक रवैया से त्रस्त सोनाखान के जमींदार रामाराय और उनके पुत्र नारायण सिंह ने महाजनों से कर्ज लेकर लोगों को बांटने लगे थे। उनके उपर महाजनों का कर्ज बहुत बढ़ गया था जिसके कारण भविष्य में कोई उन्हें कर्ज देने को तैयार नहीं था इसलिए जबरदस्ती करने लगे। महाजनों ने जब अंग्रेज सरकार से इस सम्बंध में शिकायम की तब उन्हें गिरफ्तार कर रायपुर जेल में डाल दिया गया। इसके पूर्व भी सोनाखान के जमींदार ने अंग्रेजों के विरूद्ध बगावत की थी। लेकिन जेल में उनकी भेंट स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों से हुई जिन्हें अंग्रेज सरकार के द्वारा द्वेषवश जेल में डाल दिया गया था। तब वह कुछ लोगों की सहायता से जेल से फरार हो गया। जेल से उनके फरार होने से अंग्रेज सरकार सकते में आ गया। फिर उन्हें किसी तरह गिरफ्तार करने की योजना बनाई गई। इस बात की आशंका नारायणसिंह को थी कि उन्हें गिरफ्तार करने के लिए अंग्रेज सेना कभी भी सोनाखान में हमला कर सकती है। इसलिए उन्होंने लगभग 500 लोगों की सेना लेकर सोनाखान के जंगल में मोर्चा बंदी कर ली थी और अपने पुत्र गोविंदसिंह समेत परिवारजनों को सुरक्षित स्थान में भेज दिया था। अंग्रेज के इस सैन्य अभियान में सोनाखान के आसपास के जमींदारों से मद्द की और मोर्चा बंदी की। जमींदारों की सैन्य सहायता से लड़ी गई इस लड़ाई में नारायण सिंह के अस्त्र शस्त्र खत्म हो गये इसी समय ब्रिटिश अधिकारियों के द्वारा जंगल में आग लगवाने के कारण नारायणसिंह ने आत्म समर्पण कर दिया। अत्यंत सुरक्षा व्यवस्था में उन्हें रायपुर लाया गया और जेल में पुनः डाल दिया गया।

छत्तीसगढ़ के इतिहासकार डाॅ. रामकुमार बेहार ने छ.ग. राज्य हिन्दी ग्रंथ अकादमी रायपुर के द्वारा प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘‘छत्तीसगढ़ का इतिहास‘‘ में लिखा है कि 02 दिसंबर 1857 को आत्म समर्पण किये नारायणसिंह को भारी सुरक्षा व्यवस्था में रायपुर लाया गया और 05 दिसंबर 1857 को डिप्टी कमिश्नर इलियट के सम्मुख पेश किया। उसके उपर मुकदमा चलाया गया और उन्हें फांसी की सजा सुनाई गई।‘‘ अंत में 10 दिसंबर 1857 को रायपुर को फांसी पर चढ़ा दिया गया।

छ.ग. राज्य हिन्दी ग्रंथ अकादमी रायपुर के द्वारा प्रकाशित डाॅ. श्रीराम धुप्पड़ की पुस्तक ‘दुर्ग जिले के स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास में उन्होंने लिखा है कि निःसंदेह नारायणसिंह जमींदार के रूप में महाजनों का कर्जदार था लेकिन आकाल में जनता की भलाई के लिए उन्होंने अनाज की मांग की लेकिन नहीं मिलने पर उन्हें महाजनों की कोठी को लूटने का उपक्रम करना पड़ा। अंग्रेज सरकार की नजरों में यह जुर्म था मगर इसमें उनका अपना कोई स्वार्थ नहीं था। लेकिन इस अपराध के बदले ब्रिटिश अधिकारियों ने उसके प्रति जो रूख अपनाया वह अनैतिक ही नहीं प्रत्युत घोर पाश्विक भी था। क्रांकि के इतिहासकारों का तो यह भी मत है कि नारायण सिंह को जनता की सहायता करने के लिए प्रशंसा का पात्र बनाया जाना था किंतु इसके विपरीत ब्रिटिश अधिकारियों ने पक्षपात और प्रतिशोधपूर्ण नीति अपनायी और फांसी पर चढ़ा दिया जो उचित नहीं था। 

बैरिस्टर छेदीलाल:- 

    


ठाकुर छेदीलाल बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। वे केवल स्वतंत्रता संग्राम और राजनीति तक सीमित नहीं थे बल्कि वे एक उच्च कोटि के अर्थशास्त्री, इतिहासकार, समाज सेवक और धर्मपरायण थे। वे महात्मा गांधी की विचारधारा से अत्यंत प्रभावित थे। इसी कारण वे हमेशा महात्मा गांधी के कंधा से कंधा मिलाकर चलते थे। उन्होंने छत्तीसगढ़ और अकलतरा क्षेत्र के दीन हीन, दलित शोषित और पीड़ित लोगों के लिए अनेक समाज सुधार कार्य करते हुए उन्हें स्वतंत्रता संग्राम के प्रति जनजागृति लाने के लिए लोकमान्य तिलक जी ने जिस प्रकार महाराष्ट्र में ‘‘गणेशोत्सव‘‘ की शुरूवात की और गणेश उत्सव की आड़ में स्वतंत्रता संग्राम की रणनीति तय की जाती थी ठीक उसी प्रसार उन्होंने अकलतरा में रामलीला की शुरूवात की थी। इसका आयोजन वे स्वंय करते थे। इसके लिए उन्होंने एक नाटक मंडली बनाई और कलकत्ता के कालाकारों के सहयोग से रामलीला का आयोजन करने लगे। उस समय मनोरंजन के कोई साधन नहीं था ऐसे में रामलीला को देखने बहुत अधिक संख्या में छोटे बड़े सभी लोग आने लगे थे। अकलतरा के रामलीला की तर्ज पर शिवरीनारायण में नाटक और नरियरा में रासलीला का आयोजन होने लगा था। इस आयोजन के पीछे मनोरंजन के साथ साथ स्वतंत्रता आंदोलन के लिए लोगों में जन जागृति जगाना प्रमुख था।

भारत के स्वतंत्रजं आंदोलन में अनेक सेनानियों के प्रेरणास्रोत छत्तीसगढ़ के एक छोटे से कस्बे अकलतरा के सम्पन्न परिवार में जन्में ठाकुर छेदीलाल के छात्र जीवन से महाप्रयाण तक की गाथाएं बड़े बुजुर्गों के द्वारा भाव विभोर होकर सुनाते हैं। अपने सद्कर्मो, त्याग और बलिदान के द्वारा न केवल मातृभूमि के ऋणो से मुक्ति पाई बल्कि क्षेत्र की जनता और समाज को एक नई दिशा दे गये थे। उनकी विलक्षण व्यक्तित्व और प्रतिभा से प्रभावित होकर पंडित मदन मोहन मालवीय, महात्मा गांधी, पंडित जवाहरलाल नेहरू, बल्लभभाई पटेल संत विनोबा भावे और नेता जी सुभाषचंद्र बोस प्रभावित थे। ऐसे व्यक्तित्व से हमारा प्रदेश निःसंदेह गौरवान्वित है।

सन 1914 में इंग्लैंड से बैरिस्टर बनकर जब वे स्वदेश लौटे तब उन्होंने यहां अंग्रेजों के अत्याचार, दमन से आक्रांत जनता त्राहि त्राहि कर रही है और जिस तरह से महात्मा गांधी और पंडित जवाहरलाल नेहरू विलायत से बैरिस्टर की डिग्री प्राप्त करके स्वदेश लौटकर सुखी जीवन जीने के बजाये स्वतंत्रता संग्राम के समर में कूद पड़े थे, उसी प्रकार बैरिस्टर छेदीलाल भी कूद पड़े। शुरू में उन्होंने जरूर वकालत की, अध्यापन कार्य किया मगर उन्हें ये रास नहीं आया और देश की आजादी के लिए संघर्ष कर रहे सेनानियों के साथ हो गये। उन्होंने देश की आजादी के लिए राष्ट्रीय परिपेक्ष्य के साथ साथ अपने छत्तीसगढ़ के लोगों में जन जागृति फैलाने और उनके सामाजिक उत्थान के लिए कार्य करने लगे थे। वे छत्तीसगढ़िया अस्मिता के पोषक थे। सन 1939 में जबलपुर के त्रिपुरी कांग्रेस की बैठक में स्वागत संगीत से लेकर मनोरंजन तक में छत्तीसगढ़िया कलाकारों को आगे कर दिया था। उनकी गीत, संगीत से पूरी सभा भाव विभोर हो गई थी। वरिष्ठ अधिवक्ता साधुलाल गुप्ता के अनुसार सन् 1949-50 में बिलासपुर के सुधाराम साव के बगीचे में ठाकुर साहब ने एक बैठक रखकर छत्तीसगढ़िया अस्मिता की सुरक्षा के लिए छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के लिए संगठित होने के लिए आव्हान किया। इस बैठक में ठाकुर छेदीलाल के अलावा खूबचंद बघेल, द्वारिकाप्रसाद तिवारी, साधुलाल गुप्ता, ठाकुर प्यारेलाल सिंह आदि उपस्थित थे। आगे चलकर खूबचंद बघेल ने छत्तीसगढ़ महासंघ बनाकर इस आंदोलन को आगे बढ़ाया था।

1916 में लोकमान्य तिलक के द्वारा होमरूल लीग की स्थापना की गई और बिलासपुर में भी नवयुवकों को जागृत करने के लिए एक सेवा समिति का गठन किया गया। लीग स्थापना के सम्मेलन में पंडित रविशंकर शुक्ल, ई. राघवेन्द्र राव, हरिसिह गौर और बैरिस्टर छेदीलाल उपस्थित थे। 1919 में ब्रिटिश सरकार जब रोलेक्ट एक्ट पास किया तो सम्पूर्ण देश के साथ साथ छत्तीसगढ़ में भी इसका विरोध किया गया था। इसमें बैरिस्टर छेदीलाल का प्रमुख योगदान था। ‘‘भारत छोड़ो आंदोलन‘‘ में भाग लेने के कारण बैरिस्टर छेदीलाल को कई बार जेल जाना पड़ा था। 1921 में गढ़वाल क्षेत्र भीषण आकाल की चपेट में आ गया था जिसके निवारण के लिए पंडित मदनमोहन मालवीय ने ठाकुर छेदीलाल को वहां भेजा था। वहां जाकर उन्होंने लोगों की खूब सेवा की और सामाजिक सदभाव बनाये रखा। इसी प्रकार 25 सितंबर 1926 को महात्मा गांधी बिलासपुर आये थे तब उनका स्वागत सत्कार बैस्टिर साहब ने किया था। वे छत्तीसगढ़ में सहकारिता आंदोलन के प्रणेता थे। उन्होंने पूरे छत्तीसगढ़ में संभागीय और जिला स्तरीय कृषि और औद्योगिक प्रदर्शनी का आयोजन करके गौंटिया, मालगुजार, जमींदार और राजा महाराजाओं को इसके बारे में चर्चा करके प्रोत्साहित किया जाता रहा है। डिस्ट्रिक्ट कौंसिल बिलासपुर के चेयरमेन रहते ठाकुर छेदीलाल ने चांपा में यहां के जमींदार के सहयोग से 16, 17 और 18 मार्च 1928 को जिला स्तरीय कृषि एवं औद्योगिक प्रदर्शन का आयोजन किया था जिसका उद्घाटन कमिश्नर बिलासपुर ने किया था। तीन दिवसीय इस आयोजन में विभिन्न प्रकार की परिचर्चा, वादविवाद, कृषि उपकरणों की प्रदर्शनी, के अलावा पारितोषिक वितरण किया गया था। अनेक उल्लेखनीय कार्य करते हुए उन्होंने अंत में 18 सितंबर 1956 में महाप्रयाण किया। 

डाॅ. ई. राघवेन्द्र राव:- 

    


बिलासपुर के गोंड़पारा मुहल्ले में नागन्ना बाबू के घर 04 अगस्त 1889 को ई. राघवेन्द्र राव का जन्म हुआ। चांटापारा स्कूल से प्रायमरी और मीडिल पास करके म्युनिसिपल हाई स्कूल बिलासपुर से मेट्रिक पास हुआ तब किसी ने कल्पना नहीं की रही होगी कि यह बालक एक दिन भारतीय स्वाधीनता के लिए संघर्षरत होकर देशभक्ति के उत्कृष्ट आचरण का अनुपम उदाहरण बनेगा ? 1909 में मेट्रिक परीक्षा पास करके उच्च शिक्षा के प्रयाग पहुंचे लेकिन बाद में हिस्लाॅप कालेज नागपुर में भर्ती हो गये। फिर बैरिस्टरी की शिक्षा के लिए उन्हें इंग्लैंड जाना पड़ा। वहां अध्ययनकाल में अनेक भारतीयों के संपर्क में आये। इनमें ठाकुर छेदीलाल, वीरसावरकर, व्ही. व्ही. गिरी और मुकुन्दीलाल प्रमुख थे। 1914 में बैरिस्टर बनकर वे स्वदेश लौटे और बिलासपुर आ गये। उस समय लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के हाथ में राष्ट्रीय आंदोलन की बागडोर थी। श्री राव देश की राजनीति में रूचि लेने लगे। उन्होंने अपना राजनीतिक जीवन बिलासपुर नगरपालिका के अध्यक्ष पद से आरंभ किया। इस पद पर वे 1916 से 1927 तक बने रहे साथ ही वे डिस्ट्रिक्ट कौंसिल के अध्यक्ष पद पर लगातार आठ वर्षों तक रहे। इस दरम्यान उन्होंने अनेक उल्लेखनीय कार्य किया और लोकप्रिय हो गये।

मध्यप्रदेश शासन के पूर्व मंत्री और विधानसभा अध्यक्ष श्री राजेन्द्र प्रसाद शुक्ल के अनुसार श्री ई. राघवेन्द्रराव मेघावी, प्रतिभाशाली, बुद्धिमान, सक्षम एवं विलक्षण व्यक्ति थे। वे उज्वल चरित्रवान सतपुरूष थे। उन्होंने जीवन की अल्प अवधि में ही दूसरों की अपेक्षा शीघ्र उच्च पदों को सुशोभित किया। कुछ लोग मानते हैं कि देशभक्ति धरना प्रदर्शन, जेल जाने, बड़ी बड़ी समाओं में भाषण देने से ही होता है मगर राव साहब स्वतंत्रता संग्राम के महान सेनानी थे, ऐसे सेनानी जो सिर पर कफन बांधकर आगे बढ़ते रहे, न धन की चाह थी न यश की। उच्च पदों पर रहते हुए उन्होंने अपने लिए धन संग्रह नहीं किया बल्कि लोगों की सेवा में बांटते ही रहे।

बिलासपुर के बार रूम में ई. राघवेन्द्र राव के चित्र का अनावरण करते हुए तत्कालीन मुख्य मंत्री पंडित रविशंकर शुक्ल ने कहा था कि 1915 से मेरा श्री राव से परिचय है और हम दोनों मिलकर इस प्रांत में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ आंदोलन करते रहे। उन्होंने जीवन पर्यन्त अपने हृदय में स्वाधीनता की ज्वाला को बुझने नहीं दिया। उनका आंदोलन प्रांत व्यापी था।

लोकमान्य तिलक के स्वर्गवास होने के बाद स्वाधीनता संग्राम की बागडोर महात्मा गांधी ने सम्हाल ली थी। तब से ई. राघवेन्द्र राव महात्मा गांधी के अनुयायी हो गये। 1920 में जब महात्मा गांधी का असहयोग आंदोलन शुरू हुआ तब श्री राव ने वकालत छोड़ दी। उसी वर्ष वे सी. पी. हिन्दी भाषा महाकोशल कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष निर्वाचित हुए और जब तक कांग्रेस में रहे तब तक अध्यक्ष ही रहे। आगे चलकर वे देशबंधु चितरंजनदास और मोतीलाल नेहरू के स्वराज्य पार्टी में शामिल हो गये। 1926 में राव साहब सी. पी. के विधान सभा के सदस्य चुने गये। 1927 में श्री राव के राजनीतिक जीवन में एक बहुत बड़ा बदलाव आया। उन्होंने सोचा कि अंग्रेज शासन का अंध विरोध करने के बजाये देश हित में अनुक्रियाशील सहयोग (Responsive co-opration) के माध्यम से कार्य करना अधिक लाभदायी होगा। ऐसे सहयोग से शासन के तंत्र और सत्ता से लाभ उठाकर अपने देश वासियों की आवश्यकता एवं मांगें पूरी की जा सकती है और उनके दुख दर्द मिटाकर उनको सुकुन प्रदान किया जा सकता है। फिर 38 वर्ष की उम्र में वे प्रांत के मुख्यमंत्री बने और शिक्षा विभाग भी उन्हीं के पास था। इस पद पर वे 1930 तक रहे। यद्यपि वे शासन के महत्वपूर्ण अंग थे फिर भी 1928 में साइमन कमीशन का बहिष्कार कर साहस, दुढ़ निश्चय और स्वतंत्र व्यक्तित्व का प्रमाण दिया। 1930 में वे सी. पी. के राज्यपाल के गृह सदस्य नियुक्त हुए। इस पद पर वे 7 वर्षों तक रहकर जनसेवा की। उनके प्रयास से सी. पी. के किसानों को कर्ज से मुक्ति मिली। उनके ही प्रयास से नागपुर में उच्च न्यायालय की स्थापना हुई थी। आगे चलकर ई. राघवेन्द्र राव सी. पी. के गवर्नर बनाये गये। उस समय उनकी मंशानुरूप् गवर्नर हाउस के सोफा व गद्दे और परदे आदि निकाल कर उसकी जगह खादी के वस्त्रों का उपयोग किया गया। स्वयं भी खादी व गांधी टोपी पहने। गवर्नर हाउस में यूनियन जैक का अंग्रेजी झंडा फहराता रहा मगर उनके सिर पर गांधी टोपी और शरीर पर खादी वस्त्र शोभा पाता रहा। उन दिनों खादी वस्त्र और गांधी टोपी को घृणा की दृष्टि से देखा जाता था मगर राव साहब अडिग रहे। इस कारण वे ‘‘गांधी टोपी और खादी धारी गवर्नर‘‘ के रूप में सर्वत्र प्रसिद्ध हुए।

1939 में भारत के सचिव के सलाहकार बनकर वे लंदन गये। तब उन्होंने भारतीय सुरक्षा समस्याओं का विशेष अध्ययन किया और भाषावार प्रांतों के पुनर्गठन की योजना तैयार की। अंतिम समय में वे वाइसराय की कार्यकारिणी कौंसिल में प्रतिरक्षा मंत्री बने। इस प्रकार उन्होंने देश व देशवासियों की सेवा करते हुए स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रहे और 15 जून 1942 को की अल्प अवस्था में दिल्ली में उनका स्वर्गवास हो गया।

डाॅ. ई. राघवेन्द्र राव देश और प्रदेश के उन देशभक्तों में से हैं जिनका मूल्यांकन सही ढंग से नहीं हो सका है। उन्होंने जीवन भर राष्ट्र हित को सार्वेपरि माना और राष्ट्र के लिए जीते हुए अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली। ब्रिटिश सरकार के यूनियन जैक तले गवर्नर के रूप में यदि कोई श्वेत खादी धारी और गांधी टोपी वाला कुर्सी पर बैठने का साहस किया है तो वे डाॅ. ई. राघवेन्द्र राव हैं। 

गजाधर साव:- 

    


मुंगेली जिलान्तर्गत मुंगेली लोरमी रोड में एक छोटा सा श्री गजाधर साव का मालगुजारी गांव है। यहां उनका छोटा साव परिवार रहता था। अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा  दिलाने के लिए उन्होंने मुंगेली में भी एक घर बनवा लिया था। यहां उनके परिवार का बालानी चैंक में एक राधाकृष्ण का मंदिर भी  बनाया गया बिलासपुर जिलान्तर्गत एक तहसील मुख्यालय था। लेकिन अंग्रेजों की दासता से देश की जनता त्रस्त हो गई थी और हर तरह से अंग्रेजों की नीतियों का विरोध कर रही थी। इसके लिए कांग्रेस जैसा संगठन बना जिसके बेनर तले हर जगह विरोध के स्वर निकलने लगे थे। मुंगेली का देवरी गांव भी इससे अछूता नहीं था। देवरी के मालगुजार श्री गजाधर साव भी अपने मित्र सहयोगियों के साथ इस आंदोलन में कूद पड़े। गजाधर साव को 1905 में बनारस के कांग्रेस अधिवेशन में सभी बड़े नेता जानने लगे। 1917 में होमरूल आंदोलन के समय वे बिलासपुर शाखा के प्रमुख प्रतिनिधि थे। 1921 में विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार तथा स्वदेशी वस्तुओं के प्रचार प्रसार करने में प्रमुख भूमिका निभाई। 26 मार्च 1931 में कांग्रेस के करांची अधिवेशन में कांग्रेस के अपने गांव के दलित शोषित लोगों को लेकर पहुंचे थे और वहां अपने क्षेत्र की बात रखी जिससे कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष सरदार बल्लभ भाई पटेल उनके कार्यों से बहुत प्रभावित हुए और मंच से ‘छत्तीसगढ़ का तेज तर्रार नेता‘ कहकर संबोधित किया। जनवरी 1932 में मुंगेली में विदेशी समान बेचने वाले एक दुकान में पिकेटिंग करने पर अंग्रेज सरकार द्वारा उन्हें तीन माह का कारावास और 125 रूपये का अर्थदंड सुनाया गया। सामाजिक सुधार और दलित शोषत वर्ग के अछूतोद्धार के प्रति भी गजाधर साव बहुत जागरूक थे। 1917 में मुंगेली के एक बड़ी सभी में पंडित सुंदरलाल शर्मा के द्वारा दलित शोषित वर्ग के अस्पृस्य समझे जाने वाले लोगों को जनेऊ धारण कराया गया। उनके इस कार्य से प्रभावित होकर उन्होंने भी ऐसे लोगों को जनेऊ धारण कराया और अपने मुंगेली के पैत्रिक राधाकृष्ण मंदिर में उन्हें प्रवेश कराया।

22 नवंबर से 28 नवंबर 1933 तक एक सप्ताह महात्मा गांधी जी की छत्तीसगढ़ यात्रा बहुत प्रभवशाली और प्रेरणादायी रही। वे इस क्षेत्र में अस्पृस्यता निवारण के क्षेत्र में हो रहे कार्यों से बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने इस कार्य के लिए पंडित सुंदरलाल शर्मा की प्रशंसा की बल्कि उन्हें अपना गुरू निरूपित किया था। तब यहां दलित शोषित वर्ग के लिए ‘सतनामी आश्रम‘ संचालित था जिसके बाबा रामचंद्र संचालक थे। उस समय इस क्षेत्र में गुरू अगमदास, राजमहंत नैनदास महिलांग, राजमहंत अंजोरदास कोसले, राजमहंत विशालदास, विजयशंकर दीक्षित, शंकरराव गनोदवाले और देवरी के गजाधर साव आदि समाज सुधारक के रूप में बहुत सक्रिय थे। यहां का किसान आंदोलन कांग्रेस के आंदोलन के साथ शुरू हुआ था जिसमें यहां के दलित और शोषित वर्ग के लोगों का पूरा समर्थन था।


16 दिसंबर 1936 को पंडित जवाहरलाल नेहरू मुंगेली आये  तब गजाधर साव ने उनसे आग्रह किया कि वे आगर नदी के पुल को पैदल पार कर नगर प्रवेश करें। लेकिन नेहरू जी उनकी बात नहीं माने तब वे उनके मोटर गाड़ी के सामने लेट गये । तब झल्लाकर वे कहने लगे कि या तो इस पागल आदमी को पुल से नीचे फेंक दो या फिर उसके उपर मोटर गाड़ी को चला दो। फिर भी जब गजाधर साव ने अपनी जिद नहीं छोड़ी त बवे मोटर गाड़ी से नीचे उतर कर उनके साथ आगर नदी के पुल को पैदल पार करके नगर प्रवेश किया।


1917 में मुंगेली में दलित और शोषित वर्ग को द्विजोचित अधिकार दिलाने के लिए एक विशाल सम्मेलन गजाधर साव के मेहनत का ही प्रतिफल था। मुंगेली तहसील और देवरी के वे त्यागी पुरूष अपने किस्म के एक ही नेता थे। वे कांग्रेस के हर अधिवेशन में जाते थे और वहां दलित शोषत वर्ग के किसानों, उनकी अस्पृस्यता निवारण और गौहत्या रोकने की आवाज जरूर उठाते थे। कभी उपवास करते, कभी बड़े नेताओं के सामने धरना देते, उनके मोटर गाड़ियों के सामने लेटकर आंदोलन करते थे। क्षेत्र के दलित शोषित और गरीबों के प्रति उनमें गजब की तड़पन थी। वे अपना सब कुछ उनके लिए न्योछावर कर दिये। वे उन्हीं के लिए जिये और उन्हीं के लिए मरे। देवरी में उन्होंने आर्य समाज की स्थापना की, किसान संगठन बनाया, उन्हें जनेऊ धारण कराया और मंदिर प्रवेश कराया। चरखा संघ की स्थापना की, स्वयं भी खादी कपड़े पहने और दूसरों को भी खादी पहनने की प्रेरणा दी। 1923 के सत्याग्रही में गजाधर साव और गनपति लाल बैस मुंगेली तहसील के प्रथम सत्याग्रही थे। वे अनेकों बार जेल गये। फिर भी वे सरल, सजग और लोकोद्धार में अग्रणी रहे। आज वे हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी त्यागी संस्मरण हमेशा हमें प्रेरणा देती रहेगी।


ऐसे अनेक मुंगेली तहसील में स्वाधीनता संग्राम के सेनानी थे जिनके नाम पुराना बस स्टैंड मुंगेली में एक शिलालेख में दर्ज है जिनमें बान्दु उर्फ बंदर, सदाशिव, कालीचरण शुक्ल, रामदयाल, नारायण राव, रघुपतराव, हीरालाल दुबे, सदानंद लाल, अवधराम, ददना सोनार, कन्हैयालाल, मथुराप्रसाद सोनार, गंगा प्रसाद, हरीराम, उदयशंकर, रामबुझास, भीखा जी, बल्देव सिंह, रामचरण, बाबूलाल केशरवानी, द्वारिका प्रसाद केशरवानी, छोटेलाल, सरजू प्रसाद, देवदत्त भट्ट, शिवलाल, भाईराम सेंगवा, भवानी शंकर, रघुबर प्रसाद, श्यामलाल, सिद्धगोपाल, अध्योध्या प्रसाद, झाड़ूराम, मल्लूराम तमेर, रामगोपाल, बंशीधर तिवारी, गनपतलाल, भागवत प्रसाद क्षत्री, गजानंद, रामचंद्र साव आदि।

 


गुरुवार, 30 मार्च 2023

रामनवमी : छत्तीसगढ़ में श्री राम

 छत्तीसगढ़ में श्रीराम

    

छत्तीसगढ़ प्राकृतिक वैभव से परिपूर्ण, वैविध्यपूर्ण सामाजिक और सांस्कृतिक संरचना तथा अपने गौरवपूर्ण अतीत को गर्भ में समाए हुआ है। प्राचीन काल में यह दंडकारण्य, महाकान्तार, महाकोसल और दक्षिण कोसल कहलाता था। दक्षिण जाने का मार्ग यहीं से गुजरता था इसलिए इसे दक्षिणापथ भी कहा गया और ऐसा विश्वास किया जाता है कि अयोध्यापति दशरथ नंदन श्रीराम अपने अनुज लक्ष्मण के साथ इसी पथ से गुजरकर आर्य संस्कृति का बीज बोते हुए लंका गए। इस मार्ग में वे जहां जहां रूके वे सब आज तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध स्थल हैं। उस काल के अवशेष यहां आज भी दृष्टिगोचर होता है। सरगुजा का रामगढ़, श्रीराम की शबरी से भेंट, उनके बेर खाने का प्रसंग का साक्षी शबरी-नारायण, खरदूषण की स्थल खरौद, कबंध राक्षस की शरणस्थल कोरबा, बाल्मीकी आश्रम जहां लव और कुश का जन्म हुआ-तुरतुरिया, राजा दशरथ के लिए पुत्रेष्ठि यज्ञ कराने वाले श्रृंगि ऋषि के साथ अन्य सप्त ऋषियों का आश्रम सिहावा, मारीच खोल जहां मारीच के साथ मिलकर रावण ने सीताहरण का षडयंत्र रचा, आज ऋषभतीर्थ के नाम से जाना जाता है। रायपुर जिलान्तर्गत चंद्रखुरी जहां माता कौशल्या का एकमात्र मंदिर है। सुदूर चक्रकोट (बस्तर) और चित्रकोट का वनांचल श्रीराम और लक्ष्मण के दक्षिणपथ गमन के साक्षी हैं।

    श्रीरामचंद्र को भगवान विष्णु का पूर्ण अवतार माना गया है। अवतार के प्रयोजन और उसके महत्व विशद विवेचन विभिन्न पुराणों में मिलता है लेकिन भगवद्गीता में इसका स्पष्ट उल्लेख हुआ है। उसमें बताया गया है कि भगवान विष्णु के अवतारों में सृष्टि के विकास का रहस्य छिपा माना गया है। भगवान विष्णु के अवतारों की तीन श्रेणियां क्रमशः पूर्ण अवतार, आवेशावतार और अंशावतार है। श्रीराम और श्रीकृष्ण को पूर्णावतार और भगवान परशुराम को आवेशावतार माना गया है। विभिन्न ग्रंथों में उनके 24 और 10 अवतारों का उल्लेख है जिसमें मत्स्य, कूर्म, वराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध, और कल्कि प्रमुख हैं। भगवान विष्णु के अवतारों का सामूहिक या स्वतंत्र निरूपण कुषाणकाल के पूर्व नहीं मिलता। इस काल में वराह, कृष्ण और बलराम की मूर्तियां बननी प्रारंभ हुई। गुप्तकाल में वैष्णव धर्मावलंबी शासकों के संरक्षण में अवतारवाद की धारणा का विकास हुआ। गुप्तकाल के बाद 7 से 13 वीं शताब्दी के मध्य लगभग सभी क्षेत्रों में दशावतार फलकों तथा अवतार स्वरूपों की स्वतंत्र मूर्तियां बनीं। इसमें वराह, नृसिंह और वामन स्वरूपों की सर्वाधिक मूर्तियां बनीं। ये मूर्तियां महाबलीपुरम्, एलोरा, बेलूर, सोमनाथपुर, ओसियां, भुवनेश्वर, खजुराहो तथा अन्य अनेक स्थलों से प्राप्त हुए हैं। इसके अतिरिक्त राम, बलराम और कृष्ण की मूर्तियां पर्याप्त मात्रा में मिली हैं। भगवान विष्णु के एक अवतार के रूप में दशरथी राम की लोकमानस से जुड़े होने के कारण ब्राह्मण देवों में विशेष प्रतिष्ठा रही है। यह सत्य है कि भारतीय शिल्प में दशरथनंदन राम की मूर्तियां अन्य देवों की तुलना में गुप्तकाल में लोकप्रिय हुई किंतु विष्णु के एक अवतार के रूप में इनकी कल्पना निःसंदेह प्राचीन है और ब्राह्मण देवों में इनकी विशेष प्रतिष्ठा रही है। यह सत्य है कि भारतीय शिल्प में दशरथनंदन राम की मूर्तियां अन्य देवों की तुलना में बाद में लोकप्रिय हुई। प्रतिमा लक्षण ग्रंथों में आभूषणों और कीरिट मुकुट से सुशोभित द्विभुज श्रीराम के मनोहारी और युवराज के रूप में निरूपण मिलता है। द्विभुज राम के हाथों में धनुष और बाण प्रदर्शित होते हैं, जैसा कि शिवरीनारायण के श्रीराम जानकी मंदिर और खरौद के शबरी मंदिर में मिलता है। कहीं कहीं श्रीरामलक्ष्मणजानकी के साथ भरत और शत्रुघन की मूर्तियां श्रीराम पंचायत के रूप में मिलती है। श्रीराम पंचायत की मूर्तियां रायपुर के दूधाधारी मठ में स्थित हैं। 


    श्रीराम की प्रारंभिक मूर्तियां देवगढ़ के दशावतार मंदिर में उत्कीर्ण हैं। इसमें श्रीराम धनुष और बाण से युक्त हैं। देवगढ़ में श्रीराम कथा के कई दृश्यों का शिल्पांकन हुआ है। एलोरा के कैलास मंदिर और खजुराहो के मंदिरों से श्रीराम की मूर्तियां मिली हैं। खजुराहो के पाश्र्वनाथ मंदिर की भित्ति में सीताराम की एक नयनाभिराम मूर्ति उत्कीर्ण है और पास में हनुमान की मूर्ति भी है जिनके मस्तक पर श्रीराम का एक हाथ पालित मुद्रा में अनुग्रह के भाव में है। यह मूर्ति भक्त और आराध्य के अंतर्संबंधों का सुखद शिल्पांकन है। श्रीराम की स्वतंत्र मूर्तियां तुलनात्मक दृष्टि से दक्षिण भारत में अधिक लोकप्रिय रही हैं। उत्तर भारत में राम की मूर्ति मुख्यतः विष्णु के अवतार के रूप में उत्कीर्ण है। कर्नाटक में राम का एक प्राचीनतम मंदिर 867 ई. का हीरे मैगलूर में है। श्रीराम के दोनों ओर लक्ष्मण और सीता स्थित हैं। चोलकालीन कांस्य मूर्तियों में भी श्रीराम का मनोहारी अंकन उपलब्ध है। स्वतंत्र मूर्तियों के अतिरिक्त रामकथा के विविध प्रसंगों के उदाहरण खजुराहो, भुवनेश्वर, एलोरा, बरम्बा, सोमनाथपुर, खरौद, जांजगीर और सेतगंगा जैसे पुरास्थल में दृष्टिगोचर होता है। इन उदाहरणों में भारतीय जीवन मूल्यों को उद्घाटित करने वाले प्रसंगों जैसे-सीता हरण, जटायु वध, बालि-सुग्रीव युद्ध की सर्वाधिक मूर्तियां हैं। कदाचित् इसीकारण छत्तीसगढ़ गौरव में पंडित शुकलाल पांडेय ने भी गाया है:-

रत्नपुर में बसे रामजी सारंगपाणी

हैहयवंशी नराधियों की थी राजधानी

प्रियतमपुर है शंकर प्रियतम का अति प्रियतम

है खरौद में बसे लक्ष्मणेश्वर सुर सत्तम

शिवरीनारायण में प्रकटे शौरिराम युत हैं लसे

जो इन सबका दर्शन करे वह सब दुख में नहीं फंसे।

    श्री शिवरीनारायण माहात्म्य में श्रीराम जन्म के संबंध में उल्लेख है जिसमें विष्णु भगवान रामावतार के पूर्व देवताओं को कहते हैं:-

मैं निज अंशहि अवध में, रघुकुल हो तनु चार

राम लक्ष्मण भरत अरू शत्रूहन सुकुमार।

कौशल्या के गर्भ में जन्महु निस्संदेह

महात्मा दशरथ नृपति मो पर करत सनेह।।02/128-129

    हे देवों ! मैं अयोध्यापति दशरथ के घर जन्म लेने जा रहा हूँ। आप लोग भी वहां जन्म लेकर अपना जीवन सार्थक बनाएं। मैं वहां माता कौशल्या के गर्भ से जन्म लूंगा क्योंकि राजा दशरथ का मेरे उपर बहुत स्नेह है। लोमश ऋषि आगे कहते हैं कि श्रीरामचंद्र जी के अनेक अवतार हुए हैं। उनके विस्तार, जन्म-कर्म का लेखा लगाना बड़ा कठिन है। इसमें तिलमात्र भी संदेह नहीं कि हरि माया बलवती है।उससे ज्ञानी, अज्ञानी और गुणवान भी मोहित हो जाते हैं:-

परमात्मा श्रीराम के भये विविध अवतार

जन्म कर्म के भेद अति हैं विविध विस्तार

यामे नहिं संदेह कछु हरि माया बलवान

अज्ञानी गुनवान हूँ मोहि रही जग जान।। 04/5-6

परमात्मा श्रीराम के जब जब  भये अवतार

किये राज्य नगरी अवध बल बंधि नीति विचार

तब तब मैं तोहि कुंड में डारे शालिगराम

रत्नमयी उज्जवल तहां है अनन्त छबिधाम।। 04/7-8

    श्रृंगि ऋषि के पुत्रेष्ठि यज्ञ कराने पर जो चारू प्राप्त हुआ था उसे महाराजा दशरथ अपनी तीनों रानियों को खिला दिया। कालान्तर में माता कौशल्या के गर्भ से श्रीराम, माता कैकेयी के गर्भ से भरत और माता सुमित्रा के गर्भ से लक्ष्मण और शत्रुघन का जन्म हुआ। चारों राजकुमारों के जन्म से मानों अयोध्या नगरी को आनंद से भर दिया। सभी अयोध्यावासी आनंद से नाचने गाने लगे जैसे उनकी मुराद पूरी हो गयी हो। देवलोक में भी सभी देवता नाचने गाने लगे और पुष्प वर्षा करने लगे। 

    प्राकृतिक वैभव से परिपूर्ण छत्तीसगढ़ का वैविध्यपूर्ण सामाजिक और सांस्कृतिक संरचना और अपने गौरवमयी अतीत को गर्भ में समाया हुआ है। दक्षिण जाने का मार्ग छत्तीसगढ़ से गुजरने के कारण इसे दक्षिणापथ भी कहा जाता है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि अयोध्यापति दशरथ नंदन श्रीराम अपने अनुज लक्ष्मण के साथ इसी पथ से होकर आर्य संस्कृति का बीज बोते हुए लंका गये थे। इस मार्ग में वे जहां जहां रूके वे सब आज तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध स्थल हैं।

    

सहस्त्राब्दियों पूर्व घटित त्रेतायुग का प्रमाण मिलना दुर्लभ ही नहीं असंभव भी है। नदियों ने अपने मार्ग बदले, पर्वतों ने अपने स्वरूप और अरण्यों ने दिशायें बदली, नहीं बदली तो केवल मनुष्यों की आस्था और उनका विश्वास। रामायण के विविध प्रसंग, उस काल की घटनाएं और पात्रों के उपाख्यान तब से लेकर आज तक जनमानस में वाचिक परंपरा के रूप में आज भी विद्यमान हैं। मनुष्य अपनी अनुभूतियों के साथ जनश्रुतियों को जोड़कर इतिहास की रचना करता है। लोककथा, लोकगीत, लोककला, कहावतें और मुहावरें एक दिन लोकवाणी बनकर इतिहास बन जाती है। इनमें जन मान्यताओं और आस्थाओं को स्थापित करने के लिए मंदिरों, गुफाओं आदि का निर्माण करके धन्य होता है। ऐसा ही प्रयास छत्तीसगढ़ में सदियों से होता आ रहा है। आज भी उस काल की अनेक स्मृतियां यहां देखने सुनने को मिलती है। बस्तर के लोकगीत, लोकनाट्य, शिल्पकला आदि में श्रीराम की झलक मिलती है। समूचा छत्तीसगढ़वासी रामनवमीं को बड़ी श्रद्धा के साथ मनाते हैं। इस दिन शुभ लग्न मानकर सभी शुभकार्य करते हैं। शादियां और गृह प्रवेश आदि शुभ कार्य सम्पन्न होते हैं। छत्तीसगढ़ के रामरमिहा लोग अपने पूरे शरीर में राम नाम गुदवाकर श्रीराम नाम की पूजा-अर्चना करते हैं। वे निर्गुण राम को मानते हैं। उनका कहना है के राम से बड़ा राम का नाम है। 

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